बुधवार, 15 जून 2022

कायमखानियों का इतिहास

'नबाब दादा कायम खॉ दिवस' पर विशेष (14 जून
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आज कायमखानी कौम के प्रथमb पुरुष और तत्कालीन हिसार (हरियाणा) रियासत के नवाब दादा कायम खान साहब का 600 वां ( 14 जून) को शहादत दिवस है।  नबाब दादा कायम खॉ  की जन्म स्थली ददरेवा (चूरू) थी। जहाँ पर नवाब कायम खान स्मारक बना हुआ है। इस स्मारक में करीब 200 कायमखानी शहीद सैनिकों की पट्टिकाएं लगी हुई हैं। यह वे भारतीय सैनिक हैं जो विभिन्न युद्धों एवं सैन्य ऑपरेशनों में देश की रक्षा करते हुए शहीद हुए थे।

कायमख़ानी कौम का इतिहास - 

ददरेवा (चुरु) के चौहान साम्भर के चौहानों की एक शाखा थे।लम्बी अवधी से इनका ददरेवा पर अधिकार था और इनकी उपाधी राणा थी। चौहानों में राणा की उपाधी दो शाखाएं प्रयुक्त करती थी। पहली मोहिल और दूसरी चाहिल।ददरेवा के चौहान चाहिल शाखा के थे।जाहरवीर गोगाजी महाराज जो करमचंद चौहान (दादा कायम खॉ) के पूर्वज थे, के मंदिर के पुजारी आज भी चाहिल हैं।मोटे राव चौहान ददरेवा के राजा जाहरवीर गोगाजी चौहान का वंशज था।
जाहरवीर गोगाजी चौहान (गोगाजी महाराज/गोगाजी पीर राजस्थान में लोकदेवता के रूप में मान्य है) से 16 पीढ़ी बाद कर्मचंद  चौहान (नबाब दादा कायम खॉ) हुआ।
करमचंद चौहान (दादा कायम खॉ) बादशाह फिरोजशाह तुगलक द्वारा इस्लाम में परिवर्तित हुए थे। शाह तुगलक ने करमचंद चौहान को कायम खान (उर्दू का नाम:.( نواب قائم خان,)  नाम दिया। कायम खान के वंशज कायमखानी कहलाए। कायम खान को दिल्ली सल्तनत का अमीर बनाया गया था। जिसका उल्लेख तुज्क ए सुल्तान ए डेक्कन के मेह्बूबिया मीर महबूब अली खान द्वारा किया गया है!
नवाब कायम खान ने हिजरी ७५४ में या ७६० हिजरी में इस्लाम ग्रहण किया था। सुल्तान फिरोजशाह कायम खान को  खान ए जेहान का शीर्षक देकर हिसार के फिरोजह का राज्यपाल नियुक्त किया था। 
नवाब कायम खान देहली सल्तनत के बादशाह मुहम्मद बिन तुगलक और खिज्र खान के समय तक हिसार के राज्यपाल के रूप नियुक्त रहे थे।खिज्र खान और दौलत खान लोधी, जो एक वर्ष और तीन महीने तक दिल्ली सल्तनत के शीर्ष पर थे,बाद में कायम खान और खिज्र खान के बिच कुछ मतभेद पैदा हो गए और उस समय खिज्र खान एक सैन्य अभियान में गए हुए थे तब खिज्र खान को महमूद तुगलक के कुछ दरबारियों ने खिज्र खान को भड़काया की नबाब कायम खान अन्य दरबारियों से मिलकर उसको गद्दी से हटवाना चाहते है। इस वजह से खिज्र खान ने सैन्य अभियान बिच में छोड़ कर नवाब कायम खान को हिंसार से बुलाकर एक बैठक का आयोजन किया जिसमे नबाब कायम खान को आमंत्रित किया और फिर हिजरी संवत २० वी जम्मादी ८२२ को धोखे से जमुना के किनारे बुला कर उनकी हत्या कर दी उनके शव को जमुना में फेंक दिया जिसका वर्णन "तारीख ए फरिस्ता "में मिलता है।
कायमखां के सात बेगम (रानियाँ) थी जो सब हिन्दू थी. 

कायमखां के सात रानियों के नाम इस प्रकार थे-
(i) दारूदे - साडर के रघुनाथसिंह पंवार की पुत्री  |
(ii) उम्मेद कँवर - सिवाणी के रतनसिंह जाटू की पुत्री | 
(iii) जीत कँवर - मारोठ के सिवराज सिंह गोड़ की पुत्री |
(iv) सुजान कँवर - खंडेला के ओलूराव निर्वाण की पुत्री | 
(v) सुजान कँवर - जैसलमेर के राजपाल भाटी की पुत्री | 
(vi) रतन कँवर - नागौर के द्वारकादास की पुत्री |
 (vii) चाँद कँवर - होद के भगवानदास बड़गूजर की पुत्री |

राजपूताना से संबंध - 

नबाब दादा कायम खॉ से क़ायमख़ानी वंश की शुरुआत हुई। कायमखानी मुसलमानों में आज भी 90 प्रतिशत रिवाज़ राजपूतों के हैं। इसका कारण ये है कि करम सिंह चौहान, कायम खान तो बन गए लेकिन राजपूताना गौरव से नाता जोड़े रखा। तेरहवी सदी से लेकर अब तक राजपूतों के साथ कायमखानियों का अटूट रिश्ता बना हुआ है।कायमखानी मुसलमानों में आज भी राजपूती परम्पराएं न सिर्फ सांस ले रही है, बाकि फैल रही हैं। कायमखानी मुसलमान महिलाओं और राजपुताना महिलाओं की वेशभूषा में कोई फ़र्क़ नज़र नहीं आता. कायमख़ानी हवेलियों का आर्किटेक्ट भी हूबहू राजपूताना जैसा ही है। शादियों में ज्यादातर परम्पराएँ राजपुत समाज वाली होती है।
कायमख़ानी चौहानों के वंशज हैं, इसलिए आज भी कायमखानी ख़ुद को योद्धा  ही मानते हैं। इसलिए जब आज भी बात भविष्य चुनने की आती है तो कायमखानी फौज में जाते हैं।कायमखानी मुसलमान हरियाणा के हिसार से लेकर राजस्थान के झुंझुनूं, चूरू, जयपुर, जोधपुर, नागौर, जैसलमेर और यहां तक की पाकिस्तान में भी हैं।

कायमख़ानी समाज और फौज -

शेखावाटी विशेषकर झुंझुनूं कायमखानियों का गढ है। झुंझुनूं को फौजियों का जिला भी कहा जाता है। झूंझूनु जिले से अब तक करीब 200 के आसपास फौजी शहीद हुए हैं। कायमखानी आज भी अपनी जड़ों से जुड़े हुए है। कायमखानियों में बच्चे के जन्म से लेकर तमाम मंगल कार्यक्रमों में सारे रीति रिवाज़ आज भी राजपुताना ढंग से ही होते हैं। आज जब नफरत सिर उठा रही है उस दौर में कायमखानी समाज गंगा जमुनी तहज़ीब का प्रतीक है।चार-पांच जिले विशेषकर शेखावाटी तक ही सिमटे कायमखानियों की संख्या पांचलाख के करीब होगी। सेना में भर्ती होना तो मानो कायमखानियों का शगल है। आज भी कायमखानी युवक की पहली पसन्द सेना में भर्ती होना ही है। कायमखानी युवक ग्रिनेडीयर में सबसे ज्यादा भर्ती होते हैं इसीलिये भारतीय सेना की ग्रिनेडीयर में 13 फीसदी व कैवेलेरी में 4 फीसदी स्थान कायमखानियों के लिये है।झुंझुनू जिले मे कायमखानी समाज के आज भी ऐसे कई परिवार मिल जायेंगें जिनकी लगातार पांच पीढिय़ां सेना में कार्यरत रहीं हैं।
झुंझुनू जिले का नूआ वह खुशनसीब गांव है जो सैनिकों के गांव के लिए प्रसिद्ध है। नूआ  गांव के पूर्व सैनिक मोहम्मद नजर खां के आठ बेटे हैं। सात बेटे सेना में बहादुरी दिखाते हुये देश के लिए लड़ाइयां लड़ीं। इस परिवार के पांच भाइयों ने भारत-पाक के बीच 1971 की जंग में अलग-अलग मोर्चों पर रहते हुए दुश्मन के दांत खट्टे किए थे। 1965 के भारत-पाक युद्ध के वक्त भी इसी परिवार के चार भाई गोस मोहम्मद, मकसूद खां, लियाकत खां, शौकत खां ने मोर्चा लिया था। मरहूम सिपाही नजर मोहम्मद खां के समय से चली आ रही देश रक्षा की परम्परा पांचवीं पीढ़ी में बरकरार है।इसी गांव के दफेदार फैज मोहम्मद के परिवार की चौथी पीढ़ी देश रक्षा के लिए सेना में है।15,000 की आबादी वाले नुआ गांव में 90 फीसदी घरों में फौजी हैं।इसी गांव के ताज मोहम्मद खां प्रदेश के कायमखानी समाज के पहले सेना कैप्टन थे।उन्हें ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इंपायर (ओबीई) अवार्ड मिला। इस अवार्ड में पांच पीढिय़ों को पेंशन मिलती है। इस गांव के कैप्टन अयूब खां को वीरचक्र मिला था और वे केंद्र में मंत्री भी रहे।मरहूम कैप्टन अयूब खान आजादी के बाद राजस्थान से चुने जाने वाले एकमात्र मुस्लिम सांसद भी हैं। राज्य वक्फ  बोर्ड के चेयरमैन रहे और कायमखानी समाज के पहले पुलिस आइजी लियाकत अली खां इसी गांव की शान हैं।

कायमखानियों में देशभक्ति कूट कूट के भरी है। झुंझुनूं जिले का मुस्लिम बाहुल्य गांव धनूरी को  फौजियों की खान कहा जाता है। गांव में हर घर में फौजी है। धनूरी गांव में लगभग 600 से भी ज्यादा फौजी हैं। इस गांव के 18 बेटे विभिन्न युद्धों में व सरहद की रक्षा करते हुए शहीद हो चुके हैं।
राजस्थान में सर्वाधिक शहीद धनूरी गांव ने ही दिए हैं। सन 1962 भारत-चीन के युद्ध में गांव के मोहम्मद इलियास खां, मोहम्मद सफी खां और निजामुद्दीन खां ने देश सेवा के लिए लड़ते-लड़ते अपने प्राण न्यौछावर कर दिए।

इनके अलावा भारत-पाकिस्तान की 1971 की लड़ाई में मेजर महमूद हसन खां, जाफर अली खां और कुतबुद्दीन खां देश सेवा के लिए लड़ते-लड़ते शहीद हो गए। करगिल युद्ध में गांव मोहम्मद रमजान के बहादूरी के चर्चे आज भी होते है।
धनूरी गांव के गुलाम मोहीउद्दीन खान की पांच पीढिय़ां सेना में है।
1965 के भारत-पाक युद्ध में नूआ गांव के कायमखानी समाज के कैप्टन अयूब खान ने पाकिस्तानी पैटन टैंको को तोडक़र युद्ध का रूख ही बदल डाला था। उनकी वीरता पर उन्हे वीर चक्र से सम्मानित किया गया था। कैप्टन अयूब खान 1985 से 1989 तक व 1991 से 1996 तक झुंझुनू से लोकसभा के सांसद तथा भारत सरकार में कृषि राज्य मंत्री भी रह चुके हैं।

कैप्टन अयूब खान राजस्थान से लोकसभा चुनाव जीतने वाले एक मात्र मुस्लिम सांसद रहें हैं। कैप्टन अयूब खान के दादा, पिता सेना में कार्य कर चुके हैं। उनके अनेको परिजन व उनके बच्चे आज भी सेना में कार्यरत हैं। कैप्टन अयूब खान के परिवार की पांचवीं पीढ़ी अभी सेना में कार्यरत है।

कायमखानी समाज के अनेक लोग विभिन्न सरकारी उच्च पदों पर कार्यरत है। झाडोद डीडवाना के भवंरु खान राजस्थान उच्च न्यायालय में जज है, वहीं चोलुखा डीडवाना के कुंवर सरवर खान राजस्थान पुलिस में महानिरीक्षक है। नूआ झुंझूनू के अशफाक हुसैन खान भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी है तो सुजानगढ़ के मोहम्मद रफीक जस्टिस है। नूआ के लियाकत अली पूर्व पुलिस महानिरीक्षक व राजस्थान वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष रहें हैं। बीजेपी सरकार में नम्बर दो की हैसियत रखने वाले पूर्व कैबिनेट मंत्री युनुश खान भी कायमखानी समुदाय से आते है।
कायमखानी समाज में शिक्षा के प्रति रूझाान प्रारम्भ से ही रहा है इसी कारण सेना के साथ ही अन्य सरकारी सेवाओं में भी समाज के काफी लोग कार्यरत है। कायमखानी समाज अपने आप में एक विरासत संजोये हुये है।
प्रथम विश्वयुद्ध में 34 वीं पूना होर्स की कायमखानी स्क्वाड्रन ने फिलिस्तीन के पास हाईफा पर कब्जा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी जिसमें 12 कायमखानी जवान शहीद हुये थे। आज भी हाईफा विजय की याद में हाईफा डे समारोह मनाया जाता है।
प्रथम विश्वयुद्ध में करीबन 70 कायमखानी जवानों को विभिन्न सम्मानपत्रों से सम्मानित किया गया था। प्रथम विश्वयुद्ध में कायमखानियों द्वारा प्रदर्शित उनके साहस, शूरवीरता व वफादारी से प्रभावित होकर अंग्रेज हुकूमत ने उन्हे मार्शल रेस मानते हुये फौज में उनके लिये स्थान आरक्षित किये थे।
द्वितीय विश्वयुद्ध में 18 वीं कैवेलेरी के कायमखानियों का स्क्वाड्रन मिडिल ईस्ट में दुश्मनों से घिर जाने के बावजूद भी अपने आपरेशन टास्क में सफल रहा उसी दिन की याद में आज भी टोबरूक डे मनाया जाता है। इस युद्ध में भी उन्होने कई पदक हासिल किये थे। द्वितीय विश्वयुद्ध में 8 कायमखानी जवान शहीद हुये थे।1947 में देश के बंटवारे के वक्त कायमखानियों ने भारत में ही रहने का फैसला किया तथा पूर्ववत सैनिक सेवा को ही प्राथमिकता दी।आजादी के बाद अकेले  झुंझुनू जिले के  धनूरी गांव से 7 कायमखानी जवान शहीद हुए है।कायमखानी समाज के लिए सेना में जाना महज नौकरी नहीं, एक परंपरा और परिवार के लिए रुतबा की बात है।
आज के परिदृश्य में जरूरत है कायमखानी समाज दुसरी कौमों के लिए बडे भाई के भूमिका निर्वाह करें। सामाजिक, राजनैतिक, प्रशासनिक ताकत हासिल कर आने वाले नस्लों के लिए एकजुटता और इत्तिहाद का संदेश दें।
ददरेवा में उपस्थित जनाब पूर्व मंत्री यूनुस खान साहब व कर्नल शौकत खान जी G खान साहब का आभार जिन्होंने अपना कीमती समय दिया आभार कॉम के रभी रहनुमाओं का जिन्होंने ददरेवा में आज अपनी उपस्थित दर्ज करवाई ।।