धरम धरा सूं लोप हुयो, मिनखां रा माङा हाल हुया।
खांडा हाथां सूं खिसक गया, दारू रा प्याला माल हुया।
सिंघा री हाथल़ झेलणियां, अब श्वाना रा रखवाल़ हुया।
कहो छायण अब क्या गाऊं, रजपूत भाई कलाल़ हुया।।
बै बात सटै सिर दे देता, अै नोट सटै सिर काटै है।
धन रा लोभी मतहीणां, अब थूक थूक'नै चाटै है।
हथल़ेवो छोङ'न बी'र हुयो, बो पाबू कोल निभावण नै।
अब बता किस्यै मैं है बाकी, रजपूती बैठूं गावण नै।।
इला न देता जीव थकां, मर ज्याता मायङ मान सटै।
फिरता बन बन राम बण्या, बता बिस्या रजपूत कठै।
अब तो लाडी अर गाडी ह्वै, भोम भलां ही जाती रै।
बता मनै तूं छायण अब, आ जीभ किणां बिध गाती रै।।
गरब घणेरो जिण पर करता, बो रजपूती अभिमान गयो।
खाली डील मरोङै है, बो कुल़ रो स्वाभिमान गयो।
कुल़ जात धरम सब छोङ भया, पिच्छम रा अै दीवाणा।
अब छायण तूं ही बतल़ा, किण बिध उकलै बै गाणा।।
बा रजपूती म्याना मैं सो गी, धेन धरा रूखाल़ी ही।
द्विज पद-रज री खातिर, बा रैती घणी उताल़ी ही।
अब धेन धरा तो बेच दयी, द्विज रो मान सम्मान गयो।
किण बिध गाऊं मैं रजपूती, सूनो सो हिवङो डोल रह्यो।।
बाजी कै लुल़ता पाय पकङ, दे कांधो पालकी छुङवाता।
बाजी कहदी बात नकी, पाछी कदे नीं फिरवाता।
बाजी री पहुंच रणवासां तक, महलां मांय भरोसो हो।
पिता-पुत्री ज्यां मेल़ घणां, अर रिश्तो बडो खरो सो हो।।
बो निजपण गयो, निज मेल़ नहीं, हेत खूंटग्यो हिवङां मैं।
बो साख सनातन नहीं रह्यो, अब नेह नहीं है जिवङां मैं।
तो बाजी भी पाजी बण बैठ्या, अर रजपूती मैं डोल़ नहीं।
चारण कहै साची अब छायण, इण जग मैं सांच रो मोल नहीं।।
- मनोज चारण (गाडण) "कुमार" कृत
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